बीते चार महीने से हम ग्रामीण भारत में हैं।

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बीते चार महीने से हम ग्रामीण भारत में हैं।

बीते चार महीने से हम ग्रामीण भारत में हैं। इस दौरान मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात के कुल ६०० से ज्यादा गाँवों को देखा और जिया है हमने। बरसों का किताबी ज्ञान भी सरल हुआ कि वास्तव मे हमारा देश कृषि प्रधान देश ही है जो तेज़ी से बदलने की बेचैनी में है।
बहरहाल, हमने नेताओं के बाट जोहते गाँव भी देखे और गोद वाले गाँव भी। जिस वक्त गुजरात चुनाव हो रहे थे, कुल २८ दिन हम गुजरात में ही थे। तब गुजरात में एक गाँव के सरपंच हमें बताते रहे कि कैसे वो बरसों से अपने गाँव में किसी बड़े आदमी को लाने की कोशिश कर रहे हैं और अबतक उस गाँव में इलाक़े का विधायक तक नहीं पहुँचा। जबकि गुजरात के कुछ गाँव ऐसे भी मिले जहाँ गाँव का गाँव अमेरिका, इंग्लैंड में बसा है।
महाराष्ट्र में ग्रामीण कहते मिले कि हमारे पास पैसा नहीं है इसलिए पढ-लिखकर भी नौकरी नहीं मिलती।
जबकि मध्य प्रदेश के गांव अन्य दोनों के मुक़ाबले ज्यादा जागरूक मिले। इसके साथ ही यहाँ धार्मिक आस्था की जड़ें बेहद गहरी और जीवन से जुड़ी हैं। सदाव्रत इसी आस्था और व्यवहार का अद्भुत मेल है। गाँव के गाँव चलते जाइए ना भोजन की चिंता करनी होती है ना पानी की। अलबत्ता लोग तो परिक्रमावासी को अपने घर, अपने बिस्तर तक दे देने को तत्पर दिखते हैं। इस उदारता के पीछे मान्यताएँ जो भी हों पर ये करने के लिए दिल बडा तो करना ही पड़ता है।
तो क्या ये प्रेम और शांति ही उनका मूल चरित्र है या अंर्तमन में कुछ और है इस जिज्ञासा ने मुझे उनके अंदर झाँकने को मजबूर किया। ये अभेद्य नहीं है लेकिन बिना आहत किए आवरण हटाना आसान भी नहीं। मैंने पाया, जैसे हर ठोस वस्तु के अंदर हज़ारों मॉलीक्यूल्स यानी कण खलबली मचाते रहते हैं ठीक वैसा ही गाँव का चरित्र भी है।
जब आवरण हटा तो भावनाओं का तूफ़ान मिला। जहाँ शिकायतों और समस्याओं की बाढ़ है। कोशिश करूंगी कि एक एक करके उसे साझा कर सकूं।

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