रेवती बाई एक गौड़ आदिवासी महिला हैं।

।।एक गाँव की कहानी।।
May 18, 2018
बीते चार महीने से हम ग्रामीण भारत में हैं।
May 18, 2018

रेवती बाई एक गौड़ आदिवासी महिला हैं।

रेवती बाई एक गौड़ आदिवासी महिला हैं। उम्र साठ के पार होगी। रमनगरा के पास भड़पुरा एक्सटेंशन में हमें मिली थीं। नर्मदा के उत्तर तट की ओर चलते हुए। ये जबलपुर में धुआँधार फ़ॉल के सामने वाली पहाड़ी पर है। सरस्वती घाट से रमनगरा के रास्ते ऊँची-नीची घाटियाँ और झाड़ियाँ पार कर हम उनके यहाँ पहुँचे थे।
रास्ता कठिन था और रात हावी हो रही थी। ८ बजे के करीब हम इस पहाड़ी पर पहुँचे तो कुछ समतल इलाक़ा दिखा। कुछ दूरी पर जंगल था और नर्मदा के उस पार भेड़ा घाट की जगमगाती रौशनी भी भली लगी। तो सुस्ताने के इरादे से हम वहीं बैठ गए।
इतने में पीली साड़ी में लिपटी साँवली सी रेवती बाई प्रकट हुईं। स्वागत में फूल और सदाव्रत के ५० रुपये लेकर आयी थीं। हमने फूल लेकर पैसे लौटाए तो उन्हें जमा नहीं। वो पास की अपनी टपरिया से “लबदो” लेकर आ गईं और प्रेम भाव से हमें खिलाने लगीं। ये उबले हुए पके बेर थे, जिसमें काला नमक मिला था। लेकिन रेवती बाई के प्रेम ने इसमें एक अनूठा स्वाद भर दिया था। वो स्वाद जो पहले मन पर चढ़ा नहीं था। अपने हाथों से उन्होंने हमें बेर खिलाया। और फिर हमारे साथ बैठ गयीं।
वो बैठीं तो बातें शुरू हुईं। रेवती बाई अपने बेटों के साथ बड़पुरा गाँव से सटे इसी जंगल में ही रहती हैं। यहीं साग-सब्ज़ी उगाती हैं और पैसों की जरूरत पड़ने पर शहर में बेच आती हैं। गुज़ारा किसी तरह चल जाता है लेकिन हमेशा उजड़ने का डर भी बना रहता है। बीते ५० सालों से नर्मदा किनारे की ज़मीन पर रेवती बाई के परिवार का कब्जा है। लेकिन वन कानून के तहत उन्हें अब तक कोई अधिकार नहीं मिला। रेवती ही नहीं उन जैसे गाँव के ५० और परिवार हैं जिन्हें वन कानून के तहत ज़मीन का पट्टा मिलना चाहिए था लेकिन आज भी वो इससे वंचित हैं। जबलपुर के आदिवासी इलाक़ों में हक और हासिल के दरम्यान अनेक ज़िन्दगियाँ इसी तरह झूल रही हैं।
हालाँकि रेवती बाई सरीखे आदिवासी लोग प्रेम के तारों को ज़ोर से पकड़ रखे हैं। वरना क्या जरूरत थी उन्हें कि आगे निकलने के बाद भी ४ किमी पैदल चलकर वो हमें “बिही” यानी अमरूद खिलाने पहुँच जातीं ?

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