राहुल गांधी की भारत यात्रा को पाँच दिन मैंने दूर से देखा और छठे दिन साथ चलने का मौक़ा भी मिला। मैं पीछे की पंक्ति की मुसाफ़िर बनी। मैं मध्य में भी भारत यात्रियों के साथ चली। कभी कभी सबसे आगे चलकर भी देखने की कोशिश की। यह एक पत्रकारीय नज़रिया था कि किसी चीज़ को देखो तो सिर्फ़ इकहरा पहलू न देखो। सो हमने इस दौरान हज़ारों लोगों से बातें भी की। हमने तमिल के कुछ शब्द समझे। कुछ मलयालम के भाव पढ़े। हिन्दी और अंग्रेज़ी की टूटी फूटी भाषा से भावों की प्रगाढ़ता को महसूस किया।
पीछे की पंक्ति का जोश आगे चलनेवालों से बिल्कुल कम न था। मध्य की पंक्ति में चलनेवालों में प्रतिबद्धता कूट कूटकर भरी दिखी। और आगे वाले सारी बलाओं से बचाते चलते मिले।
पाँच दिन चलने और समझने के बाद श्री राहुल गांधी से मुलाक़ात का मौक़ा मिला। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि उनके जोश और उनके मज़बूत कंधों ने लाखों इंसानों के बीच एक भरोसा पैदा कर दिया है कि यह देश एक है और जोडने का यह प्रयास बिखराव से ज़्यादा मज़बूत है।
वह एक ऐसे शक्तिपुंज की तरह दिखे जिसके कंधों पर भारत की ईमानदार राजनीतिक भावनाओं की आस सफ़र कर रही है। ईश्वर उनकी इस तपस्या को सफल करें।
शुभकामनाएँ!