छठ मेरे बचपन की यादों का एक ऐसा पर्व है जो माँ के तप के साथ साथ अपनी मुफ़लिसी की याद दिलाता है। तब नए कपड़े दिवाली पर नहीं छठ पर सिलाए जाते थे। माँ के लिए दो अर्घ्य की दो नयी साड़ियाँ आती थीं तो पूरे परिवार में नएपन की चकाचौंध हो जाती थी। लगता था हमारे अंदर नयी ऊर्जा का संचार हो रहा है। मां की कठोरता से डरते हम बच्चे इन दिनों में उनकी कोमलता के आभास से पिघल जाते थे।
मगर वो सादगी के दिन थे। साल में होली और छठ पर ही नए कपड़े बनते थे। जिसका नया होना ही बहुत था। मुझे अपने लिए माँ की सिली वो हरी फ्रॉक आज भी याद है जो छठ के दिन तक सिली जा रही थी। उस साल शायद माँ कहीं व्यस्त थीं सो मेरे लिए कपड़ा तैयार नहीं कर पायी थीं। पर लगन ऐसी कि तीन दिन से व्रत के बावजूद छठ वाले रोज़ मेरी नयी फ्रॉक तैयार की गयी ताकि मैं उसे ही पहनकर पूजा के लिए जाऊँ। आज माँ की वो लगन और परिवार के प्रति जतन याद आती है। माँ छठ के लिए रोमांचित रहती थीं। उनके इस रोमांच में पूरा परिवार ही नहीं मोहल्ला शामिल हो जाता था। सभी का सानिध्य इसे बड़े से बड़ा बना देता था।
दिवाली की रौनक़ से इतर छठ में ग़ज़ब की सादगी और नयापन होता था। घर का कोना कोना चमका दिया जाता था। ज़र्रे ज़र्रे में छठ की भीनी ख़ुश्बू तैरने लगती थी। फिर शुरू होता था गेहूं धोकर सुखाना, हम बच्चों का कौवे उड़ाना, उसे जांते (चक्की) में पीसना, उसका ठेकुआ बनाना। घर में नया चावल, नया गुड़, गन्ने का रस आना और वह बखीर- आह ! उसका स्वाद तो आज भी नहीं भूला है। नए चावल और नए गुड से चूल्हे पर बना वह खाना अमृत से कम नहीं होता था।
फिर आता था अर्घ्य का दिन। माँ मंदिर जाते हुए गीत गाती थीं। कांच ही बांस के बहँगिया, बहँगी लचकत जाए…..पिता जी गन्ने और पूजा का सामान सँभालते थे और हम बच्चे पीछे पीछे दौड़ते से चलते थे। नए नए कपड़ों में त्योहार का रोमांच अलग ही होता था। माँ के जोश से हम उत्साहित रहते थे। बुआ हो या मोहल्ले की चाची जी, चाचा जी ( तब हम सभी पड़ोसियों को ऐसे ही पुकारते थे) सब साथ हो लेते थे। लेकिन कोई शोर न था। सब तरफ़ सादगी थी। माँ मंदिर की पचास से ज़्यादा सीढ़ियाँ चढ़कर डाला के पहाड़ी पर बने मंदिर में पूजा के लिए जाती थीं। अर्घ्य के लिए वहाँ बने एक तालाब के पानी में उतर जाती थीं। मेरे मन में चिंता होती थी कि माँ की नयी साड़ी गीली हो जाएगी तो पल्लू पकड़कर खड़ी हो जाती थी। पापा अर्घ्य दिलाते थे। फिर शाम घर आते हुए बस सुबह का इंतज़ार होता था।
अगले दिन भोर तीन बजे से ही सुनहरी सुबह का इंतज़ार करते हम बच्चे ठंड में किसी कंबल में सिकुड़ते बैठ जाते थे। माँ गीत गाती रहती थीं- उगेले सुरूजमल कहवाँ…
गीत गाते गाते सूर्योदय हो ही जाता था। अर्घ्य के बाद पड़ोस की चाची जी के लाए थर्मस की चाय माँ बड़े मन से पीती थीं। लगता था जैसे तृप्त हो रही हों। इस बीच हम बच्चे ठेकुआ पाने को बेचैन हो उठते थे। फिर अपने अपने प्रसाद की छँटायी होती थी। प्रसाद में इतने तरह की चीजें होती थीं कि सब अपनी पसंद से कुछ न कुछ अलग कर ही लेते थे।
इसके बाद सारा दिन सभी पड़ोसी चाची जी और आंटी जी के घर प्रसाद बाँटने का सिलसिला शुरू होता था। इस तरह छठ की पूजा संपन्न होती थी और हम नयी गर्मी के साथ सर्दी के स्वागत के लिए तैयार हो जाते थे। माँ बिना आराम किए नए दिन के चूल्हा चौका में लग जाती थीं।
बचपन के उन दिनों में हम छठ हर साल ऐसे ही मनाते रहे। वही छठ आज भी मन मस्तिष्क को भिगोता है। मुझे मेरी हरी फ्रॉक और माँ का गीत मन से बचपन में ले जाता है। मैं नए जमाने के छठ में भी वही पुराना रोमांच ढूँढती रहती हूं।